न्याय शास्त्र की पृष्ठ भूमि व महत्व

 न्याय शास्त्र की पृष्ठ भूमि व महत्व
जे.बी.शर्मा
विषय की गंभीरता को देखते हुए हम जिन पुस्तकों और ग्रंथों का सहारा ले रहे हैं उनमें सर्वप्रथम डॉ. राधा कृष्णन द्वारा लिखित, भारतीय दर्शन, वियोगी हरि द्वारा रचित, हमारी परंपरा और आचार्य उदयवीर शास्त्री द्वारा लिखित, योगदर्शनम् (विद्योदयभाष्यम्) इन पुस्तकों के अध्ययन के बाद भी लेखक अपने विषय के मर्म और गंभीरता की कसौटी पर खरा उतर पायेगा कहना थोड़ा मुश्किल है। लेकिन यह भी वक़्त का तकाज़ा है कि हमारे देश में स्थापित न्यायायिक प्रणाली व प्रक्रिया की पृष्ठ भूमि को समझें और यह भी जाने कि आखिर इंसाफ या  न्याय की मानव समाज में ज़रूरत क्यों पड़ी?
 कहना गलत न होगा कि आज भारत की राजनीति एक कठिन दौर से गुज़र रही है, जिससे देश की अखंडता कमज़ोर पड़ती दिखाई दे रही है। कुल मिलाकर स्थित यह है कि बड़े बड़े विद्वान, विचारक, विशेषज्ञ और पत्रकार पूरज़ोर कोशिश से देश में सौहार्द व सदभाव बनाने में जुटे हैं। परन्तु परिस्थितियां समय के हाथों  में जाती दिखाई पड़ रही हैं। और अनुकूल समय को बिन जन-सहयोग के हम अपने करीब नहीं ला सकते। ऐसे में कम से कम मुझ जैसे अदने से पत्रकार को अत्याधिक संभल कर लिखना होगा।



योगदर्शनम् के अनुसार भारतीय वैदिक छह दर्शन हैं। इन छह दर्शनों को दो-दो के तीन जोड़ों में विभाजित कर रखा गया है। जैसे: न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसा-वेदांत। अब क्योंकि हमारा विषय न्याय शास्त्र से जुड़ा है तो ऐसे में हमारा प्रयत्न न्याय के उद्गम को समझना ही होगा। भारतीय दर्शन में इस बात का उल्लेख मिलता है कि जब संशयवाद का प्रभाव और प्रवाह बढ़ा तो यह समझ में आया कि उसकी रोक-थाम केवल आस्था की बिना पर नहीं की जा सकती। विशेषकर उन परिस्थितियों में जब नास्तिकों ने आस्था के दुर्ग पर ही हमला करने के लिए इन्द्रियजन्य ज्ञान व तर्क को ही आधार मान रखा हो। इन हालत में जीवन व धर्म के लक्ष्यों की प्राप्ति शुद्ध ज्ञान के साधनों और उनकी विधियों की गंभीर जांच से हो सकती है। यहां यह भी कहना उचित होगा कि धर्मशास्त्र व इन्द्रियों द्वारा प्राप्त होने वाले ज्ञान की जो वस्तु या उपकरण सामने आते हैं तो उनकी तार्कि क छानबीन का प्राचीन नाम अनुसंधान, खोजबीन या फिर आन्वीक्षिकी -विद्या। न्याय के बारे में भारतीय दर्शन में आगे उल्लेख मिलता है,'क्योंकि न्याय का शाब्दिक अर्थ है किसी विषय के भीतर जाना या कहें कि उसकी विश्लेषणात्मक समीक्षा करना।' इसलिए हम न्यायदर्शन को, जिनमें आलोचनात्मक छानबीन की सामान्य योजना और पद्धति का अध्ययन किया जाता है, को विज्ञानों का विज्ञान कहते हैं। बेशक न्याय को कभी कभी तर्कविद्या और वादविद्या, अर्थात वाद-विवाद सबंधी विज्ञान का नाम भी दिया गया है। ऐसे में सत्य की खोज में इस विधि का सहारा लेना ज़रूरी हो जाता है। वियोगी हरि अनुसार न्याय का अर्थ है वे सिद्धांत हैं जिनके आधार पर विवादास्पद प्रश्रों का निर्णन किया जाता है। प्राचीन समय में इसके अनेक रूप रहे हैं मिसाल के तौर पर, शास्त्रों की आज्ञा, परम्परा या रिवाज या फिर किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति का आदेश इत्यादि। यहां तक कि न्याय-दर्शन ने विश्व-व्यवस्था के लिए प्राय: वैशेषिक-दर्शन को अपना आधार माना है, इसलिए न्याय-वैशेषिक का जोड़ा कहा जाता है। वैशेषिक के यहां मायने पदार्थ विद्या है। न्याय दर्शन का मूल ग्रंथ न्याय सूत्र (ई.पू. 200) गौतम बुद्ध कृत ग्रंथ है। It is called, Science of inquiry, systematic philosophy, science of correct knowledge  and it is also called  science of reasoning. ऐसे में सवाल यह उठता है कि न्याय शास्त्र की पृष्ठ भूमि और इसकी महत्ता को जानने समझने के बाद क्या हम मान लें कि वर्तमान में देश की अदालतों में मुद्दई और मुद्दालेह अपने-अपने पक्ष को बड़ी ईमानदारी और सच्चाई से पेश करते होंगे? क्या उनके द्वारा अदालतों में पेश किए गए मुकद्दमों में दोनों ओर से सच्च और केवल सच ही बोला और प्रस्तुत किया जाता है? ऐसा मानना संदेहास्पद होगा। आमतौर पर देखा गया है कि चौकी-थानों में भी लोग अपने विरोधी को नीचा दिखाने के लिए उसके  खि़लाफ झूठी शिकायत दर्ज कराने में नहीं हिचकिचाते। तो ऐसे में अहम मुकद्दमों में सब सच ही होगा मान लेना कुछ मुश्किल दिखाई पड़ता है। सच केवल सच से ही परखा जा सकता है जिसकी वर्तमान में कोई उचित जगह दिखाई नही दे रही ।
 हमने देखा कि हाल ही में  देश की सर्वोच्च अदालत ने अयोघ्या मामले में अपना फैंसला सुनाया। सवाल यह है कि इस ऐतिहासिक फैंसले से क्या देश की सारी जनता खुश है? या कहें कि उच्चतम न्यायालय के उक्त फैंसले से संतुष्ट है? यह बात सही है कि राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जि़द से जुड़ा यह मामला पेचिदा और बहुत पुराना है फिर भी बात तो न्याय मिलने की है। हम फिर कहना चाहेंगे कि न्याय के लिए सच और केवल सच की ज़रूरत होती है जिसे आज के युग में संभवत: हर कोई स्वीकार करने को तैयार नही।  इस लेख में हमने ऊपर यह स्पष्ट करने की कोशिश की है कि संशय के बढ़ते प्रवाह-प्रभाव को केवल आस्था के बिना पर नहीं रोका जा सकता और आस्था की आढ़ में ही देश की राजनीति सिर ज़ोर है कौन नहीं जानता? जिसके चलते संशय का प्रभाव व प्रवाह दोनों ही अविरल रूप में देखे जा सकते हैं।