लोकतंत्र बचाने से पहले इसके मूल को समझना ज़रूरी

लोकतंत्र बचाने से पहले इसके मूल को समझना ज़रूरी
 भाग-2
जे.बी. शर्मा
लोकतंत्र से संबंधित इस लेख के पहले भाग में हमने बताया था कि विश्व के लगभग 120 देशों यानिकि विश्व के 60 प्रतिशत देशों में लोकतंत्र कैसे फैला और कब से फैलना आरंभ हुआ? और डेमोक्रेसी के प्रसार से पहले दूसरे शब्दों में कहें तो 18वीं शताब्दी से पूर्व किस प्रकार का असमान कृषक- समाज जिस पर छोटे से अभिजात वर्ग का वर्चस्व हुआ करता था, अस्तित्व में रहा। कहना होगा कि डेमोक्रेसी की स्थापना से पहले समाज में मुख्य दो ही वर्ग हुआ करते थे पहला अभिजात वर्ग जिसे अंग्रेजी ज़ुबान में इलिट क्लास कहते हैं और दूसरा एग्रेरियन। इस लेख को पुख्ता बनाने के लिए हमने अमरिका के  सुप्रसिद्ध राजनैतिक वैज्ञानिक और राजनैतिक अर्थशास्त्री व लेखक द्वारा लिखी बुक  : [ POLITICAL ORDER AND POLITICAL DECAY (Yoshihiro Francis Fukuyama)] की मदद ले रहे हैं। सैम्यूल हटिंगटन और लैरी डॉयमंड के विचारों को भी पहले भाग में हम प्रस्तुत कर चुके हैं। इस भाग में हम डेमोक्रेसी के बारे और भी जानकारी एकत्र कर लिखना चाहेंगे। ऐसे में  जर्मन के दो दार्शनिकों फ्रडेरिच विलियम नीत्शे और जोर्ज विहिलियम फ्रडेरिच हिगल ने  आधुनिक राजनीतिक लोकतंत्र को क्रिस्चैनिटी- सिद्धांत से जुड़ा विश्व-मानव समानता व प्रतिष्ठा पर आधाररित धर्मर्निपेक्षता का संस्करण बताया। विशेषकर हिगल ने फ्रैं च रिवोलूशन से भौतिक जगत में जो विकास देखा-समझा उसे उन्होंने समान पहचान का आर्विभाव कहा और उसे मानव की आंतरिक भाव की तर्क-शक्ति की एक्सरसाइज़ माना। 



जब हम विकास के बारे में बात करते हैं तो इसके छ: आयाम जिनमें: Economic Growth, Social Mobilization , Ideas\legitimacy, The State, Rule of Law and Democracy. को समझने का मौका मिलता है। सिद्धांतिक तौर पर विचारों और सांस्कृतिक मूल्यों के बीच संबंधों को अनौपचारिक कहा गया है। लेकिन माना जाता है कि विचार बहुत शक्तिशाली होते हैं और ये राजनीतिक संस्थानों के बारे में बहुत कुछ बयान करते हैं। वहीं जब कार्ल माक्र्स क ी  मूलभूत पद्धति को जब हम  संक्षिप्त रूप में देखतें हैं तो पता चलता है कि उनके अनुसार पुराने सामंतवाद से जो पहला सामाजिक वर्ग लामबंद हुआ वह पूंजीपतियों का था । जिसे (bourgeoisie) अर्थात पूंजीपति वर्ग कहा गया। शहरी-बाशींदों को, पुराने भू-स्वामियों द्वारा तिरस्कार के साथ देेखा जाता था। लेकिन उन्होंने अधिक पूंजी एकत्र कर रखी थी और उन्होंने नई तकनीक का प्रयोग करके ओधौगिक क्रांति ला दी। ऐसे में इस रिवोलूशन ने समाज में बारी-बारी जिस दूसरे वर्ग को  लामबंद किया वह श्रमजीवियों का था।  लेकिन श्रमजीवियों के जमा श्रम को पूंजीपतियों द्वारा हथिया लिया जाता था, वैसे तो शोषण का यह सिलसिला आज भी जारी है। ऐसे में समाज के उपरोक्त तीनों वर्ग अलग से राजनैतिक परिणाम चाहते थे फिर भी परमपरागत ज़मीदारों का वर्ग निरंकुश शासन व्यवस्था का ही पक्षधर था। जबकि (bourgeoisie) अर्थात पूंजिपति उदार शासन व्यवस्था के पक्षधर थे जिससे उनकी संपत्ति के अधिकार सुरक्षित रहें और संभवत:  यह चुनावी लोकतंत्र को भी शामिल करें। (कहना उचित होगा कि  bourgeoisie क्लास हमेशा विधि-शासन व्यवस्था में ज्य़ादा रूचि रखती थी बनिस्पत डेमोक्रेसी के ) वहीं जब श्रमजिवियों के यह अभास हो गया कि एक वर्ग है तो यह वर्ग अपनी  तानाशाही चाहने लगा। जो कि बारी बारी से उत्पादन के साधनों को सोशलाइज़ बनाना चाहते था और यह वर्ग नीजि संपत्ति समाप्त करने का पक्षधर था व साथ ही यह वर्ग संपत्ति-संपदा का पुर्नवितरण करना  भी चाहता था। वहीं श्रमजीवी वर्ग संभवत: चुनावी प्रजातंत्र का पक्षधर था और वह डेमोक्रेसी को सार्वभौमिक मताधिकार के रूप में देखना चाहता था।



 कार्ल माक्र्स के बाद एक बहुत महत्वपूर्ण विद्वान जिनका नाम बारिंगटन मूर था ने सन् 1966 में एक  किताब लिखी जिसका शीर्षक था Social Origins Of Dictatorship  and Democracy जिसमें विद्वान मूर ने पहले से ही जापान के बारे उल्लेख कर रखा था। यह एक कॉम्पलैक्स बुक है  जिसमें ब्रिटेन सहित जर्मन,जापान, चीन, रशिया और भारत के   इतिहासिक मामलों को श्रखंलाबद्ध रूप में प्रस्तुत किया है। और यह बात समझाने की कोशिश की क्यों डेमोक्रेसी विश्व के कुछ देशों में उभरती है बाकी में नहीं। संभवत: मूर को उनकी स्पष्टवादिता के लिए याद किया रखा जाता है: No bourgeoisie, no democracy इससे मूर का हर$गीज यह मतलब नहीं था कि पूंजीवादियों के  उदित होने लोकतंत्र निश्चित ही पैदा होगा। इसके लिए मूर ने जर्मन का उदाहरण दे कर समझाने का प्रयत्न किया है कि ओधौगिक पूंजपति भी  प्रशिया के  भूसंपन्न अभिजात वर्ग जिन्हें जंकर (German:  members of the landed nobility in Prussia were called Junker) कहा जाता है के साथ जर्मन में आपने आप संबद्ध हुए थे। कहना $गलत न होगा कि इस संबद्धता के कारण ही जर्मन में हिटलर का उदय हुआ था। आज हमें भारत में किसी संबद्धता किसके साथ है इसको समझना ज़रूरी होगा। केवल मात्र लोकतंत्र की हत्या हो रही है या की जा रही है चीखे-चिल्लाने से कोई $फायदा न होगा। मूर आगे तर्क देते हैं कि डेमोके्रसी तीव्रता से उदित हो सकती अगर पूंजिपतियों की बढ़ती तादाद, भूमिस्वामियों और कृषिकों के बीच की पुरानी व्यवस्था को विस्थापित कर दे। मूर यहां इण्लैंड को उदाहरण देते हैं कि किस प्रकार वहां के पूंजिपति उधमियों द्वारा ग्रामिण क्षेत्रों में खेती का व्यापारीकरण करने में कामयाबी हासिल की और किसानों को भूमि से दूर रखा और फण्डस् का प्रयोग ओधौगिक क्रांति के लिए किया। लेकिन आज का युग इनफॉरमेशन एण्ड टैकनोलॉजी का है तो सोचने वाली बात यह है कि वर्तमान में डेमोक्रेसी को कैसे जि़न्दा रखा जा सकता है? हांलाकि मूर ने विशेष तौर खेती के उत्पादन की प्रकार पर ध्यान दिया है जो कि कार्ल माक्र्स नहीं दिया। हालांकि मूर की उपरोक्त किताब में बहुत सी संदर्भित बिन्दु है लेकिन उनकी एक अवधारणा कि पूंजिपति और मध्यमवर्ग लोकतंत्र के आर्विभाव के लिए समीक्षात्मक कहा जा जाना चाहिए।
जारी... ..
बाकी तीसरे भाग में: